क्या लोकतंत्र के चैथे स्तंभ ने अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाई
पश्यन्नपि न पश्यतन। यानी दुष्ट लोगों को दूसरे के भीतर राई बराबर दोष भी दिख जाता है लेकिन खुद में मौजूद बेल के बराबर की कमी को देखते हुए भी वह अनदेखा कर देता है। भारतीय मनीषियों द्वारा कही गई इस सूक्ति पर इन दिनों पश्चिमी देशों का मीडिया और उसका अंधानुकरण करने वाला घरेलू मीडिया का एक खास समूह खरा उतरता दिखा है। किसी भी सभ्य समाज में असमय या अप्राकृतिक वजह से एक भी मौत को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। उन परिवारों से पूछिए, जिन्होंने अपने प्रिय बंधु-बांधवों को इसमें खोया है, लेकिन इन सबसे परे पश्चिम का मीडिया लाशों और श्मशानों की सनसनी खेज खबरें परोसकर देश की छवि को मलिन कर रहा है।
जब इटली, फ्रांस और अमेरिका में लाशों का अंबार लग रहा था तो इनमें से नामालूम कितने मीडिया हाउसों ने श्मशान स्थलों की इतनी आक्रामक रिपोर्टिंग की होगी? बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन के उसे पता नहीं कहां से यह मालूम पड़ गया कि भारत में दूसरी लहर कुंभ और विधानसभा चुनाव जैसे आयोजनों से भयावह हुई। दूसरे प्रदर्शनों की भीड़ से इन्हें संक्रमण के प्रसार का खतरा नहीं दिखता है। अब इनसे कोई पूछे कि जहां चुनाव नहीं हुए या कुंभ नहीं आयोजित हुआ, वहां क्यों संक्रमण फैला? मीडिया समाज का दर्पण होता है।
संतुलित खबरें इसकी जिम्मेदारी हैं, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने यह कभी नहीं बताया कि उत्तरी अमेरिका और यूरोप की संयुक्त आबादी से ज्यादा भारत की आबादी है। दोनों महाद्वीपों में 87 देश हैं, लेकिन इन देशों में हुई कुल मौतें भारत से कई गुना ज्यादा हैं। उनका स्वास्थ्य ढांचा बहुत समृद्ध है। इसके बावजूद अगर भारत ने अपने अल्पसंसाधनों के साथ मृत्युदर को स्थिर रखा तो यह पहलू क्यों नहीं बताया या दिखाया गया। क्या लोकतंत्र के चैथे स्तंभ ने अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह निभाई? जरूरत आज देश के साथ खड़े होने की है। आर्थिक और मानसिक रूप से देश को मजबूत करने की है। ऐसे में जो लोग या संस्थाएं इस प्रतिकूल हालात में देश की छवि धूल-धूसरित कर रहे हैं, उन्हें सही तर्कों और तथ्यों के साथ आईना दिखाना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।